Thursday, November 08, 2012

अपनी अर्थी सजाऊं


चाहती तो यह थी कि
मेरी अर्थी पहले सजती
लाल जोड़े में मैं सजती
पहने होते हाथों में कंगन
माथे मेरी बिंदिया चमकती

पर तुम धोखा दे गये
अपनी जिमेदारियाँ  छोड़
दूर देश चले गये.
पहनाके सफ़ेद रंग मुझ को
सारे रंग, संग ले गये.

बूढे माँ बाबा का
ध्यान ना आया.
कैसे बोझा  उठाएंगे
कमज़ोर कन्धों पर
अपने बेटे की अर्थी.
मुझे उनको धीर
बंधानी है.
अब तो बेटा बन कर
सारे फ़र्ज़ निभाने हैं
तुम्हारे फ़र्ज़ निभाने हैं.

कोई अब ना सालगिरह होगी
ना दिवाली ना होगी कोई होली.
बीते पलों की यादें
मेरी दुनिया होगी.
मैं सपनों में जी लूंगी

इंतज़ार करना तुम मेरा,
वादे सारे पूरे करूंगी ,
कोई काम अधूरे ना
रहेंगे, कसम तुम्हारी
बेटियों की डोलियाँ भेज कर
अपनी अर्थी सजाऊंगी

तुमसे मिलने आऊंगी
तुमसे मिलने जल्दी आऊंगी

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