Thursday, November 08, 2012

ज़िंदगी उतरन बन गयी



चली थी किस्मत बनाने
खुदा से लड़ कर अपने
हाथों की लकीरें लिखवाने
मिला कुछ ऐसा मुझको
ज़िंदगी वहीं ठहर गयी
 
ग़रीबी की ज़िल्लत मिली
रात-ओ-दिन -------------
मिला न नया कपड़ा कभी
ना ही मिली कोई गुड़िया 
चादर पर लगाकर पैबंद
ज़मीन पर बिछी चटाई.
ज़िंदगी  उतरन  बन   गयी 
 
हुई छोटी तो क्या हुआ
उमर मेरी भी बढ़ती है
मिलते  हैं भैया  को नये कपड़े 
मुझको देते  उतरन हैं
कैसे क़ुदरत खेल खेली है
 
महलों के खवाब न देखे
सपनों की सेज सजाई नहीं
झुग्गी  में रहकर मैंने 
फिर हिम्मत जुटाई है
अब न ओढूंगी न ही
पहनूँगी किसी की उतरन
कहानी नयी लिखी गयी
 
वक़्त से सीखा है मैंने
खुद पर विश्वास है मुझको
पैबंद लगी  चादर ओढ़के
दिया चाहे  न कोई जले
पढ़ूंगी चाहे जो भी हो
पहुँचूँगी अपने मुकाम पर
फैंकना उतार  उतरन है. 
ज़िंदगी ऐसी रच गयी

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