Tuesday, September 30, 2008

सब यह कहते हैं मैं तवाईफ हूँ

मेरा कोठ मेरा मुक़द्दर है
कौन कहता है यह मेरा घर है

हार के ज़िंदगी से आई हूँ
मैं यहाँ कब खुशी से आई हूँ

मैं ने पहने जो पाँवों में घुँघरू
मुझ को कहने लगा तवाईफ तू

यह ना सोचा कि ग़म की मारी हूँ
अपनी मजबूरियों से हारी हूँ

जब बगावत में सिर उठाया है
मैं ने ज़ालिम का कोड़ा खाया है

एक पल भी जो पाँवों रोक लिया
मुझ को सबने लहू लुहान किया

याद आता है मुझ को भी बचपन
मेरे माँ-बाप उनका वो आँगन

मेरे दिल पर भी मस्ती छाई थी
मैं ने भी इक पतंग उड़ाई थी

आज खुद बुन गयी हूँ एक पतंग
रोज़ उड़ती हूँ एक डोर के संग

मेरे पाँवों हैं और घुँघरू हैं
अब ये आँखें हैण और आँसू हैं

मुस्कुराहट का अब ना कोई निशान
नाम तो अब भी है मीरा “मुस्कान”

कौन है जिस से अपना हाल कहूँ
सब यह कहते हैं मैं तवाईफ हूँ

Wednesday, September 17, 2008

विष से भरा ये "व' अक्षर...

"" अक्षर इतना विनाशकारी क्यूँ है
क्यूँ इससे मिलते शब्द रोते हैं
वैश्या, विकलांग, विधवा तीनो
दर्द से भरे होते हैं.

वैश्या कोई भी जानम से नही होती
हालत या मजबूरी उससे कोठे पर
ले जाती है., भंध कर घूँगरू
नाचती है रिज़ाति हैं. छुप कर
आँसू बहती है.
दो प्यार के बोलों को तरस
जाती है,
मौत की दुहाई हर रोज़
खुदा से मांगती

विकलांग कोई भी
मर्ज़ी से नही जानम लेता
फिर क्यूँ सब ग्रिना से देखते है
उससे भी हक़ हैं
उतने ही अधिकार हैं
जितना सब को है.
क्यूँ उससे चार दीवारी तक ही
सिमट कर रखते है
क्या उससे प्यार का हुक़ नही
क्या उसके जज़्बातों में
कमी है-----------
या दुनिया का दिल इतना छोटा है
बताओ यह किसका कसूर है.

विधवा
यह श्राप की तरहा अक्षर है
जिससे भी यह जुड़ जाए
उसकी तो ज़िंदगी लाश है
प्यार तो खोती है मासून
लोग उसका जीना भी
छीन लेते हैं
शिंघार तो छूत्त जाता है
उसका नीवाला भी छीन लेते हैं
बिस्तर पर पति का साथ जाता
कामभक्त बिस्तर भी
छीन लेते हैं

हर ओर विनाश ही मिलता है
शब्द का कैसा यह विकार है
वैश्या, विकलांग विद्वा.
सारे ही इस विनाश का शिकार

Monday, September 15, 2008

मुझे जानम दो माँ

कब से याकुल बैठा हून आस लगाए
कोई तो आए मूज़े प्यार से गले लगाए

तेरा बीज हून, जानम लेना चाहता हून
माँ की बाहें मूज़े भी झूला झूलाए

तुम जिस खूबसूरत दुनिया में रहती हो
मैं वो दुनिया देखना चाहता हून

आजकल क्या हुआ है क्यूँ बचों से सब रूठे हैं
विज्ञान की तरक़ी से बचे भी अब चुनते हैं

बेटी अघर हो कोख में, सौदा कर लेते हैं
देकर मौत मासूम को कैसे चैन से रहते हैं

ओर अगर हुआ कोई नुक्स मुज में तो
क्या मेरा भी गला घोंट दोगि माँ

क्या मैं तरसता रह जायूंगा जानम लेने को
ममता भरे आँचल को माँ के दूड पीने को

माँ मूज़े खुद से जुड़ा ना करो
तेरा अंश बनके आना चाहता हून

बहुत बार मरा हून जानम से पहले ही
माँ मैं तुज़े माँ बुलाना चाहता हून

माँ अपने आँचल में छुपाले मुझको
तेरे सीने लगकर मैं हसना मुस्कुराना चाहता हून

आब ना सोचो,मूज़े जानम दे दो माँ
आब तो मूज़े जानम दे दो माँ

खंज़र की धार आज हुँने देख ली

मुहाबत की सब रंगत देख ली.
दिल तोड़ने के सब हरकत देख ली.
चीन ली दिलसे दड़कन कुछ इस तरह
दर्द में जलने की आग देख ली

अस्ख़ छलकेन्गे तुम्हारी याद में
जज़्बात मचलेंगे तड़पकर
टूटकर चाहत के अंदाज़ सनम
आज कैसे मरेंगे रह देख ली

प्यार में कभी पलट कर बुलाते
हर घाम यूँही अपने सीने में
सबकी नज़रों से चुप्पा लाते.
आज लूट जाने की नज़ाकत देख ली

दुखाया है इस कदर मन को
सज़ा दें भी जानम मगर
जानते हैं लहू मेरा ही बहेगा
खंज़र की धार आज हुँने देख

कैसा संदेशा भेजा है

चाँद तारों में लपेट कर
बहारों में महक भर कर
मुहाबत ने आज दिलबर
कैसा संदेशा भेजा है
पढ़ के चूम लेती हूँ
चूम के पढ़ लेती हूँ

राहों में पलकें बिछाकर
उमीदों के चिराग जलाकर
दिल में सनम के हलचल मचाकर
आँखों में कैसा ख्वाब भेजा है
देख के जाग जाती हूँ
जाग के देख लेती हूँ

आवाज़ की मीठी सरगम सजाकर
बोलों की मीठी धुन बना कर
टन पर मेरे जानम
लिखकर गीतों का कैसा पैगाम भेजा है
सून के डूब जाती हूँ
डूब के सुनती जाती हूँ

मेहन्दी हाथों पर लगवाकर
लाल जोड़ा पहनावाकर
हाथ में चूड़ी, माथे बिंदिया
आज यह कैसा शिणगार भेजा है
शर्मा के आईना देख लेती हूँ
आईना देख के शरमाती हूँ

आज क्या बात है किस के पास जाती हूँ
आज क्या बात है किसी को पास पाती हूँ

देके इंतज़ार दिल में आँखों से आँसू बहता hoga

देके इंतज़ार दिल्में आँखों से आँसू बहता होगा.
वो आज भी आईने से मुझे अपना कहता होगा,

आज भी रातों की उसे जब याद आती होगी मेरी,
चाँदनी रात मैं उसी चाँद को देखता होगा.

उस से मिल के कभी थी बहुत ज़्यादा,
सावन में भीग के उस को याद करता होगा.


जिन खातों को अपनी ग़ज़लों में लिखा उस ने,
उन खातों को आज कहीं किताबों में छिपता होगा.

अब तो मैं जलती नही हूँ चिरगों की तरह,
भटकता होगा जब वो तब कौन रह दिखता होगा.

आप ने खुश्बू देखी पर मालूम है ये मुझको.
फूलों की सेज होगी और काँटों में लिपटा होगा.

आज भी मेरी रूहसे बँधा तो है लेकिन,
आज किसी और इमारत को वो घर बताता होगा.

खुद को ही कान्हा आज कल वो समझता नही है,
नीरा को भी बारहा अब वो मीरा कहता होगा.

लाख मुस्कराए नीरा उस के सामने झूठ झूठ,
इन पलकों में छिपा एक एक अश्क़ वो पढ़ता होग