मेरा कोठ मेरा मुक़द्दर है
कौन कहता है यह मेरा घर है
हार के ज़िंदगी से आई हूँ
मैं यहाँ कब खुशी से आई हूँ
मैं ने पहने जो पाँवों में घुँघरू
मुझ को कहने लगा तवाईफ तू
यह ना सोचा कि ग़म की मारी हूँ
अपनी मजबूरियों से हारी हूँ
जब बगावत में सिर उठाया है
मैं ने ज़ालिम का कोड़ा खाया है
एक पल भी जो पाँवों रोक लिया
मुझ को सबने लहू लुहान किया
याद आता है मुझ को भी बचपन
मेरे माँ-बाप उनका वो आँगन
मेरे दिल पर भी मस्ती छाई थी
मैं ने भी इक पतंग उड़ाई थी
आज खुद बुन गयी हूँ एक पतंग
रोज़ उड़ती हूँ एक डोर के संग
मेरे पाँवों हैं और घुँघरू हैं
अब ये आँखें हैण और आँसू हैं
मुस्कुराहट का अब ना कोई निशान
नाम तो अब भी है मीरा “मुस्कान”
कौन है जिस से अपना हाल कहूँ
सब यह कहते हैं मैं तवाईफ हूँ
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
6 comments:
मेरे दिल पर भी मस्ती छाई थी
मैं ने भी इक पतंग उड़ाई थी
आज खुद बुन गयी हूँ एक पतंग
रोज़ उड़ती हूँ एक डोर के संग
people did n t read these lines these are the summary of thought on which u have written
great collective attitude to envisage the reference
regards
बहुत बढ़िया.
Dil ke bhavo ko bahut hi sahaj aur sarl sabdon me bahane diya hai aap ne ....
Bahut hi dard bhari kavita....
http://www.dev-poetry.blogspot.com/
मेरे दिल पर भी मस्ती छाई थी
मैं ने भी इक पतंग उड़ाई थी
आज खुद बुन गयी हूँ एक पतंग
रोज़ उड़ती हूँ एक डोर के संग
people did n t read these lines these are the summary of thought on which u have written
great collective attitude to envisage the reference
regards
makrand ji
aap yahan aaye. meri kavita saraya
bahut bahut shukriya
उड़ान तस्तरी जी
आपको कविता
पसंद आई
धन्यवाद
Dev ji
Dil ke bhavo ko bahut hi sahaj aur sarl sabdon me bahane diya hai aap ne ....
Bahut hi dard bhari kavita....
aapne meri kavita mein dard ko
mehsoos kiya.
bahut bahut shukriya
Post a Comment